मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं: हम आपके लिए आज हम आपके लिए अपने इस लेख के माध्यम से ब्रजभाषा के मशहूर लेखक मैथिलीशरण गुप्त जी की कुछ मशहूर और चुनिंदा कविताएं लेकर आए हैं। इस प्रसिद्ध लेखक का जन्म 3 अगस्त 1886 में उत्तर प्रदेश के एक छोटे से चिरगांव में हुआ था। मैथिलीशरण गुप्त जी ने गांधी जी के साथ आंदोलन की लड़ाई भी लड़ी थी और उनके साथ जेल भी गए थे। इनकी प्रसिद्ध रचनाएं साकेत यशोधरा चंद्रहास, लाल गीत राज मंगल-घट पंचवटी, अलघ मेघनाथ-वध आदि है। अपनी दिलकश रचनाएं और कविताओं के प्रकाशित होने के बाद गुप्त जी को कई सारे अवॉर्ड्स से सम्मानित किया गया जैसे मंगला प्रसाद पारितोषिक पुरस्कार,डिलीट की उपाधि से विभूषित और 1945 में पद्म भूषण आदि। 12 दिसंबर वर्ष 1964 को इस महान आत्मा ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
1- मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं: प्रतिशोध
किसी जन ने किसी से क्लेश पाया
नबी के पास वह अभियोग लाया।
मुझे आज्ञा मिले प्रतिशोध लूँ मैं।
नही निःशक्त वा निर्बोध हूँ मैं।
उन्होंने शांत कर उसको कहा यों
स्वजन मेरे न आतुर हो अहा यों।
चले भी तो कहाँ तुम वैर लेने
स्वयं भी घात पाकर घात देने
क्षमा कर दो उसे मैं तो कहूँगा
तुम्हारे शील का साक्षी रहूंगा
दिखावो बंधु क्रम-विक्रम नया तुम
यहाँ देकर वहाँ पाओ दया तुम।
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक द्वारा यह बताया जा रहा है कि यदि अगर आपके मन में किसी के प्रति प्रतिशोध की भावना है तो उसे तुरंत ही निकाल देना चाहिए क्योंकि मन में प्रतिशोध की ज्वाला को पनपने देना कई बार आपको नुकसान में पहुंचा देता है। कभी द्वारा कहा जा रहा है कि यदि अगर आपके साथ कभी कोई व्यक्ति कुछ गलत करता है तो आपको उसे माफ कर आगे बढ़ दे हम बढ़ना चाहिए ना कि उसके प्रति प्रतिशोध की ज्वाला भड़क आनी चाहिए। आपका बदला लेने वाला ऊपर भगवान बैठा है वह निश्चित ही आपके किए गए अच्छे कर्मों का फल देर से सही मगर अच्छा ही देगा, क्यूंकि कर्मा लौटकर आता जरूर है।
2- गुणगान
तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें हो कर आऊं मैं?
सब द्वारों पर भीड़ मची है,
कैसे भीतर जाऊं मैं?
द्बारपाल भय दिखलाते हैं,
कुछ ही जन जाने पाते हैं,
शेष सभी धक्के खाते हैं,
क्यों कर घुसने पाऊं मैं?
तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें हो कर आऊं मैं?
तेरी विभव कल्पना कर के,
उसके वर्णन से मन भर के,
भूल रहे हैं जन बाहर के
कैसे तुझे भुलाऊं मैं?
तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें हो कर आऊं मैं?
बीत चुकी है बेला सारी,
किंतु न आयी मेरी बारी,
करूँ कुटी की अब तैयारी,
वहीं बैठ गुन गाऊं मैं।
तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें हो कर आऊं मैं?
कुटी खोल भीतर जाता हूँ
तो वैसा ही रह जाता हूँ
तुझको यह कहते पाता हूँ-
‘अतिथि, कहो क्या लाउं मैं?’
तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें हो कर आऊं मैं?
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक मैथिलीशरण गुप्त जी द्वारा कहा जा रहा है कि गुणगान करने के लिए मनुष्य के पास कई दरवाजे होते हैं अपनी प्रशंसा करने के। आज के समय में हर कोई अपना गुणगान अपने मुंह से करने में लगा रहता है। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि गुणगान करने वाला व्यक्ति किसी भी रास्ते के जरिए अपनी अच्छाइयों को बताने का मौका नहीं छोड़ता। कभी भी अपनी प्रशंसा अपने मुंह से नहीं करनी चाहिए। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि कभी भी अपने मुंह से अपने गुणों का बखान नहीं करना चाहिए असल प्रशंसा वह होती है कि कोई दूसरा आपके पीठ पीछे आपके बारे मे अच्छा बोलता है। यदि अगर आप चाहते हैं कि लोग आपकी प्रशंसा आपके पीठ पीछे करें तो आप कुछ ऐसे काम करें कि लोग आपके पीछे और आपके सामने आपके गुणगान करते नहीं थके।
3- भाषा
करो अपनी भाषा पर प्यार।
जिसके बिना मूक रहते तुम, रुकते सब व्यवहार।
जिसमें पुत्र पिता कहता है, पत्नी प्राणाधार
और प्रकट करते हो जिसमें तुम निज निखिल विचार।
बढ़ाओ बस उसका विस्तार
करो अपनी भाषा पर प्यार॥
भाषा बिना व्यर्थ ही जाता ईश्वरीय भी ज्ञान,
सब दोनों से बहुत बड़ा है ईश्वर का यह दान।
असंख्य हैं इसके उपकार।
करो अपनी भाषा पर प्यार॥
यही पूर्वजों का देती है तुमको ज्ञान-प्रसाद,
और तुम्हारा भी भविष्य को देगी शुभ-संवाद।
बनाओ इसे गले का हार।
करो अपनी भाषा पर प्यार।
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक मैथिलीशरण गुप्त जी द्वारा कहा जा रहा है कि मनुष्य को सदैव अपनी भाषा से प्रेम करना चाहिए। आप चाहे जिस भी देश के निवासी हूं और वहां पर जो भी भाषा बोली जाती हूं आपको उससे प्रेम करना चाहिए और अपनी भाषा का मान सम्मान करना चाहिए। आपकी भाषा चाहे हिंदी हो अंग्रेजी हो फारसी या फिर उर्दू जब तक आप अपनी भाषा से प्रेम नहीं करेंगे तब तक आपने उसके प्रति सम्मान की भावना उत्पन्न नहीं हो सकती।
4- मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं: गर्मी
धूल और पत्तों को लेकर हवा ज़ोर से चलती है,
तप्त हुई अवनी आतप से मानो भीतर जलती है।
जिधर देखिए उधर आग-सी लगी हुई दिखलाती है,
प्रलयकाल का दृश्य भयंकर गर्मी याद दिलाती है॥
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक मैथिलीशरण गुप्त जी द्वारा तपती गर्मी में किस तरह किस तरह मनुष्य के भीतर आग जलती है बताया जा रहा है। कवि कह रहा है कि गर्मी के समय में धूल और पत्तों को सिखाती हुई जिस तरह सुखी हवाएं चलती हैं। मनुष्य को अंदर ही अंदर यह गर्मी इतना झुलसा देती है कि घर से बाहर निकलने के लिए भी सौ बार सोचना पड़ता है। गर्मी का यह दृश्य किसी भयंकर पहले से कम नहीं होता।
5- जीवन की ही जय
मृषा मृत्यु का भय है
जीवन की ही जय है ।
जीव की जड़ जमा रहा है
नित नव वैभव कमा रहा है
यह आत्मा अक्षय है
जीवन की ही जय है।
नया जन्म ही जग पाता है
मरण मूढ़-सा रह जाता है
एक बीज सौ उपजाता है
सृष्टा बड़ा सदय है
जीवन की ही जय है।
जीवन पर सौ बार मरूँ मैं
क्या इस धन को गाड़ धरूँ मैं
यदि न उचित उपयोग करूँ मैं
तो फिर महाप्रलय है
जीवन की ही जय है।
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक मैथिलीशरण गुप्त जी द्वारा जीवन की जय जा रही है। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि जिस तरह भगवान ने जिंदगी दी है उसमें मरना तो तय है लेकिन खुशी, साहस और उत्साह के साथ जीना ही असल जिंदगी है। भय के साथ जीवन की विपत्तियों का सामना कर 100 बार मरना और गिरकर खड़े होना जिंदगी में सफल बनाता है। हर व्यक्ति अपने जीवन को सफल और सुरक्षित बनाना चाहता है लेकिन जीवन सफल तभी बनता है जब आप आगे बढ़ने का निरंतर प्रयास करते हैं और रास्ते में आने वाली मुश्किलों का डटकर सामना करते हैं। सफ़लता हासिल करने के बाद निश्चित ही आप एक दिन कहेंगे जीवन की जय हो।
6- मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं: होली
होलीकाली काली कोईल बोली-
होली-होली-होली!
हँस कर लाल लाल होठों पर हरयाली हिल डोली,
फूटा यौवन, फाड़ प्रकृति की पीली पीली चोली।
होली-होली-होली!
अलस कमलिनी ने कलरव सुन उन्मद अँखियाँ खोली,
मल दी ऊषा ने अम्बर में दिन के मुख पर रोली।
होली-होली-होली!
रागी फूलों ने पराग से भरली अपनी झोली,
और ओस ने केसर उनके स्फुट-सम्पुट में घोली।
होली-होली-होली!
ऋतुने रवि-शशि के पलड़ों पर तुल्य प्रकृति निज तोली
सिहर उठी सहसा क्यों मेरी भुवन-भावना भोली?
होली-होली-होली!
गूँज उठी खिलती कलियों पर उड़ अलियों की टोली,
प्रिय की श्वास-सुरभि दक्षिण से आती है अनमोली।
होली-होली-होली।
व्याख्या
लेखक मैथिलीशरण गुप्त जी द्वारा हमारा सबसे महत्वपूर्ण त्योहार होली का वर्णन अपनी कविता के माध्यम से कर रहे हैं। जैसे ही होली का समय नजदीक आता है वैसे ही लोगों में उसको धूम धाम से मनाने की इच्छा तेजी से बढ़ने लगती है। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि होली के रंगों में रंगा हुआ माहौल एक दूसरे को और भी नजदीक ले आता है। होली के त्योहार के समय रूठे भी मान जाते हैं और इस त्यौहार को अपनों के साथ बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। उड़ता गुलाल एक दूसरे को रंग लगाना बड़ा ही खूबसूरत एहसास दिलाता है।
7- हैं दोनो ओर प्रेम पलता
है दोनों ओर प्रेम पलता है।
सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है!
सीस हिलाकर दीपक कहता–
’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’
पर पतंग पड़ कर ही रहता
कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।
बचकर हाय! पतंग मरे क्या?
प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?
जले नही तो मरा करे क्या?
क्या यह असफलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।
कहता है पतंग मन मारे–
’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे,
क्या न मरण भी हाथ हमारे?
शरण किसे छलता है?’
दोनों ओर प्रेम पलता है।
दीपक के जलने में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,
किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।
जगती वणिग्वृत्ति है रखती,
उसे चाहती जिससे चखती;
काम नहीं, परिणाम निरखती।
मुझको ही खलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है।
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक मैथिली शरण जी द्वारा कहा जा रहा है कि यदि दो लोगों के बीच प्रेम की भावना है तो अवश्य ही वो अपने जीवन को खुशी उत्साह और उल्लास के साथ जी सकते हैं। अगर दो लोगों में एक तरफा प्रेम की भावना है तो इस प्रेम की ना कोई मंजिल है और ना ही कोई मोल। कवि कह रहा है कि एक तरफा प्रेम के रास्ते पर चलना आपको सिर्फ और सिर्फ दुख और तकलीफ के अलावा कुछ नहीं दे सकता। जिस तरह पतंग बिना डोर के नहीं उड़ सकती उसी तरह जीवन की गाड़ी एक मनुष्य के सहयोग और प्रेम के बल पर नहीं चल सकती। अगर आप भी किसी से एकतरफा प्रेम करते हैं तो जरूरी है कि या तो आप अपनी भावनाओं को उस व्यक्ति के सामने व्यक्त कर दे या फिर अपना रास्ता ही बदल ले।
8- मैथलीशरण गुप्त की कविताएं: मुझे फूल मत मारो
मुझे फूल मत मारो,
मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो।
होकर मधु के मीत मदन, पटु, तुम कटु गरल न गारो,
मुझे विकलता, तुम्हें विफलता, ठहरो, श्रम परिहारो।
नही भोगनी यह मैं कोई, जो तुम जाल पसारो,
बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह–यह हरनेत्र निहारो!
रूप-दर्प कंदर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो,
लो, यह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो।
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से कवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा कहा जा रहा है कि यदि कोई आपके सामने वियोगिनी भी आए उसके साथ दया का व्यवहार करना चाहिए। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि मनुष्य को अपना व्यवहार हमेशा प्यार भरा और दया से पूर्ण रखना चाहिए चाहे आपके सामने कोई भी हो। इस कविता से हमें यही सीख मिलती है कि हमारे सामने राजा हो या रंक उसके साथ एक जैसा ही व्यवहार करना चाहिए।
9- ओला
एक सफेद बड़ा-सा ओला,
था मानो हीरे का गोला!
हरी घास पर पड़ा हुआ था,
वहीं पास मैं खड़ा हुआ था।
मैंने पूछा क्या है भाई,
तब उसने यों कथा सुनाई!
जो मैं अपना हाल बताऊँ,
कहने में भी लज्जा पाऊँ।
पर मैं तुझै सुनाऊँगा सब,
कुछ भी नहीं छिपाऊँगा अब।
जो मेरा इतिहास सुनेंगे,
वे उससे कुछ सार चुनेंगे!
यद्यपि मैं न अब रहा कहीं का,
वासी हूँ मैं किंतु यहीं का!
सूरत मेरी बदल गई है,
दीख रही वह तुम्हें नई है!
मुझमें आर्द्रभाव था इतना,
जल में हो सकता है जितना।
मैं मोती-जैसा निर्मल था,
तरल किंतु अत्यंत सरल था।
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक मैथिलीशरण गुप्त जी द्वारा जमीन पर पड़े हुए ओलों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया जा रहा है। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि हरी घास पर ओला पड़ा हुआ था और मैं वही खड़े होकर उसे देख रहा था। देखने में वह सफेद चमकदार हीरे की तरह चमक रहा था। द्वारा कहा जा रहा है कि जिस प्रकार धरती पर गोला गिरने के बाद वह पानी के रूप में बदल कर सरल हो जाता है, इसी प्रकार मनुष्य को भी अपने मन में ओलो की तरह कठोर भाव ना रखकर पानी की तरह सरल भावना रखनी चाहिए।
10- दीपदान
जल, रे दीपक, जल तू
जिनके आगे अँधियारा है,
उनके लिए उजल तू
जोता, बोया, लुना जिन्होंने
श्रम कर ओटा, धुना जिन्होंने
बत्ती बँटकर तुझे संजोया,
उनके तप का फल तू
जल, रे दीपक, जल तू
अपना तिल-तिल पिरवाया है
तुझे स्नेह देकर पाया है
उच्च स्थान दिया है घर में
रह अविचल झलमल तू
जल, रे दीपक, जल तू
चूल्हा छोड़ जलाया तुझको
क्या न दिया, जो पाया, तुझका
भूल न जाना कभी ओट का
वह पुनीत अँचल तू
जल, रे दीपक, जल तू
कुछ न रहेगा, बात रहेगी
होगा प्रात, न रात रहेगी
सब जागें तब सोना सुख से
तात, न हो चंचल तू
जल, रे दीपक, जल तू।
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक मैथिलीशरण गुप्त जी द्वारा कहा जा रहा है कि जब तक अंधेरों में आपके मन में दीपक की लौ जलती रहेगी तब तक कोई भी आप को अंधकार की ओर नहीं धकेल सकता। जो लोग कठिन तपस्या करके अपनी मंजिल को हासिल करते हैं,उनके तब का फल एक जलते हुए दीपक की तरह होता है। कवि द्वारा किया जा रहा है कि सब कुछ खत्म होने के बाद भी मनुष्य की बात, प्रांत और रात रह जाती है लेकिन जब सवेरा होता है तब अवश्य ही आप अपनी मंजिल को अपनी और करीब ला सकते हैं। कवि कहा जा रहा है कि मंजिल के पड़ाव में आने वाली हर विपत्ति का सामना एक जलते हुए दीपक के समान करना चाहिए।
हेलो दोस्तों हम उम्मीद करते हैं कि आपको प्रसिद्ध लेखक मैथिलीशरण गुप्त जी की यह कविताएं अवश्य ही पसंद आई होंगी। यह भी हम आपके लिए बहुत सारी दिलचस्प और मजेदार कविताएं लेकर आते रहेंगे जिन्हें पढ़कर आपका दिन बन जाएगा। इसी तरह हमारे आर्टिकल्स को पढ़ते रहें और अपना प्यार देते रहें।