जयशंकर प्रसाद की कविताएं: आज हम आपके लिए बहुत ही प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद जी की कुछ बेहतरीन कविताएं अपनी साठी कल के माध्यम से लेकर आए हैं कृपया हमारे इस लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें। जयशंकर प्रसाद जी की कविताएं और रचनाएं हम सभी ने कक्षा 6 से 12 तक ही पड़ी है। प्रसिद्ध लेखक का जन्म वर्ष 1889 में काशी में हुआ था। जयशंकर प्रसाद जी की प्रसिद्ध रचना कामायनी थी जो हिंदी भाषा में लिखी गई थी।जिसपर उन्हें मंगलाप्रसाद पारितोषिक अवार्ड भी मिला था। प्रसाद जी अपनी रचनाएं और कविताएं ब्रजभाषा और खड़ी बोली में लिखते थे।
1- सब जीवन बीता जाता है
धूप छाँह के खेल सदॄश
सब जीवन बीता जाता है।
समय भागता है प्रतिक्षण में,
नव-अतीत के तुषार-कण में,
हमें लगा कर भविष्य-रण में,
आप कहाँ छिप जाता है
सब जीवन बीता जाता है।
बुल्ले, नहर, हवा के झोंके,
मेघ और बिजली के टोंके,
किसका साहस है कुछ रोके,
जीवन का वह नाता है
सब जीवन बीता जाता है।
वंशी को बस बज जाने दो,
मीठी मीड़ों को आने दो,
आँख बंद करके गाने दो,
जो कुछ हमको आता है
सब जीवन बीता जाता है।
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक जयशंकर प्रसाद द्वारा बताया जा रहा है कि तेजी से भागते हुआ मैं हमें इस बात का संकेत दे रहा है कि मनुष्य का जीवन बिना रुके बीत रहा है। टिक टिक करके भागता हुआ समय कभी भी एक क्षण का भी इंतजार नही करता। कवि कह रहा है कि बीतते समय के साथ जिंदगी को भी खुशी खुशी जीना चाहिए। छोटी छोटी खुशियां ही हमे बीत गए वक्त की याद दिलाती है। अपने जीवन में मनुष्य को हर वो कार्य करना चाहिए जिसमे उसे खुशी मिले क्योंकि गुजरा हुआ वक्त दोबारा लोट कर आने वाला नही है।
2- अरुण यह मधुमय देश हमारा
अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा।
लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा।
बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा।।
हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा।
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक जयशंकर प्रसाद कह रहे है कि हमारा देश अरुण मधुमय देश है। हमारे देश में अंजान लोगो को भी सहारा दिया जाता है और सहायता के लिए लाखो लोग आगे आ जाते है। हमारा देश हमारी शान है हमारा सम्मान है। देशवासियों को गर्व है की हम इस देश के निवासी हैं जहा अजनबियो को भी गले लगाकर सम्मान दिया जाता है। इस भारत देश को अमर बनाने में कई शूरवीरों ने अपना बलिदान दिया है। उन्ही शूरवीरों के कारण आज हमारे देश हमारे माथे पर सम्मान का तिलक बनकर और गौरव का ताज बनकर विराजमान हैं।
3- जयशंकर प्रसाद की कविताएं: लहर
वे कुछ दिन कितने सुंदर थे ?
जब सावन घन सघन बरसते
इन आँखों की छाया भर थे।
सुरधनु रंजित नवजलधर से-
भरे क्षितिज व्यापी अंबर से
मिले चूमते जब सरिता के
हरित कूल युग मधुर अधर थे।
प्राण पपीहे के स्वर वाली
बरस रही थी जब हरियाली
रस जलकन मालती मुकुल से
जो मदमाते गंध विधुर थे।
चित्र खींचती थी जब चपला
नील मेघ पट पर वह विरला
मेरी जीवन स्मृति के जिसमें
खिल उठते वे रूप मधुर थे।
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक जयशंकर प्रसाद जी द्वारा वर्षा ऋतु के बाद कैसे माहौल सुहाना हो जाता है यह बताया जा रहा है। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि जब बचपन के दिन भी क्या खूब थे जब बारिश में घने बादल बरसते हैं उस बारिश में भीगना हो या तेज चलती ठंडी हवाओं को महसूस करना हो बड़ा ही खूबसूरत एहसास दिलाता है। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि यह सब मस्ती केवल बचपन में ही करने को मिलती है और बड़े होने के बाद सिर्फ यादें ही रह जाती है। आज कल की भागदौड़ भरी जिंदगी में यह सब अनुभव करना मानो एक सपने जैसा है।
4- तुम्हारी आंखों का बचपन
तुम्हारी आँखों का बचपन !
खेलता था जब अल्हड़ खेल,
अजिर के उर में भरा कुलेल,
हारता था हँस-हँस कर मन,
आह रे वह व्यतीत जीवन
तुम्हारी आँखों का बचपन।
साथ ले सहचर सरस वसन्त,
चंक्रमण कर्ता मधुर दिगन्त ,
गूँजता किलकारी निस्वन ,
पुलक उठता तब मलय-पवन.
तुम्हारी आँखों का बचपन।
स्निग्ध संकेतों में सुकुमार ,
बिछल, चल थक जाता तब हार,
छिडकता अपना गीलापन,
उसी रस में तिरता जीवन.
तुम्हारी आँखों का बचपन।
आज भी है क्या नित्य किशोर-
उसी क्रीड़ा में भाव विभोर-
सरलता का वह अपनापन-
आज भी है क्या मेरा धन !
तुम्हारी आँखों का बचपन।
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक जयशंकर प्रसाद जी द्वारा बचपन के उन यादों और वो अटपटे खेलो का वर्णन किया जा रहा जब हम घंटो बिना किसी रोकटोक के अपने दोस्तो के साथ खेला करते थे। बचपन में भाई बहनों के वो किलकारियों भरा स्वर और वो अपनापन बहुत याद आता है। आंखों ही आंखों कैसे बचपन बीत गया पता ही नहीं चला। आज भी जब पीछे मुड़कर अपना प्यार भरा बचपन देखते हैं तो दोबारा उसी बचपन में लोट जनेवकी इच्छा उत्पन्न हो जाती है। बचपन में बिना संकोच के मां बाप से जिद्द करना है या हक जताना हो कितना सुंदर एहसास छोड़ जाता है ह्रदय में।
5- जयशंकर प्रसाद की कविताएं: अब जागो जीवन के प्रभात
अब जागो जीवन के प्रभात।
वसुधा पर ओस बने बिखरे
हिमकन आँसू जो क्षोभ भरे
उषा बटोरती अरुण गात।
अब जागो जीवन के प्रभात।
तम नयनों की ताराएँ सब-
मुद रही किरण दल में हैं अब,
चल रहा सुखद यह मलय वात।
अब जागो जीवन के प्रभात।
रजनी की लाज समेटो तो,
कलरव से उठ कर भेंटो तो ,
अरुणाचल में चल रही बात,
अब जागो जीवन के प्रभात।
व्याख्या
इस कविता में कवि जयशंकर प्रसाद जी कह रहे हैं जब आंख खुले तभी सवेरा हो जाता है। जरूरी नही की रात को सोने के बाद ही सुबह सवेरा होता है बल्कि एक सफल और कामयाब मनुष्य के लिए रात दिन कुछ मायने नही रखता।अगर कुछ महत्वपूर्ण है तो उसका प्रयास जिसमे हर समय सूर्य की किरणे सुबह की रोशनी बिखेरती है। और जब सुख के पल जीवन में आते हैं तो वो ठंडी हवा की तरह एक सुकून दे जाते हैं।
6- मेरी आँखों की पुतली में
मेरी आँखों की पुतली में
तू बन कर प्रान समां जा रे ।
जिससे कण कण में स्पंदन हों,
मन में मलायानिल चंदन हों,
करुणा का नव अभिनन्दन हों-
वह जीवन गीत सुना जा रे।
खिंच जाय अधर पर वह रेखा-
जिसमें अंकित हों मधु लेखा,
जिसको यह विश्व करे देखा,
वह स्मिति का चित्र बना जा रे।
व्याख्या
कविता के माध्यम से लेखक जयशंकर प्रसाद जी द्वारा बताया जा रहा है कि जब आप किसी से मन ही मन प्रेम करने लगते हैं तो आपकी नजरें उस व्यक्ति को पल-पल ढूंढती रहती हैं। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि दया का भाव रखते हुए मेरे प्यार भरे गीत को सुनो।
7- जयशंकर प्रसाद की कविताएं: दीप
धूसर सन्ध्या चली आ रही थी अधिकार जमाने को,
अन्धकार अवसाद कालिमा लिये रहा बरसाने को।
गिरि संकट के जीवन-सोता मन मारे चुप बहता था,
कल कल नाद नही था उसमें मन की बात न कहता था।
इसे जाह्नवी-सी आदर दे किसने भेंट चढाया हैं,
अंचल से सस्नेह बचाकर छोटा दीप जलाया हैं।
जला करेगा वक्षस्थल पर वहा करेगा लहरी में,
नाचेगी अनुरक्त वीचियाँ रंचित प्रभा सुनहरी में,
तट तरु की छाया फिर उसका पैर चूमने जावेगी,
सुप्त खगों की नीरव स्मृति क्या उसको गान सुनावेगी।
देख नग्न सौन्दर्य प्रकृति का निर्जन मे अनुरागी हो,
निज प्रकाश डालेगा जिसमें अखिल विश्व समभागी हो।
किसी माधुरी स्मित-सी होकर यह संकेत बताने को,
जला करेगा दीप, चलेगा यह सोता बह जाते को।
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से कवि द्वारा कहा जा रहा है कि शाम होते ही जब अंधेरा अपना अधिकार जमाने लगता है तो उस अंधकार को मिटाने के लिए दीप को प्रकशित किया जाता है। एक दिए की रोशनी सारे अंधकार को मिटा देती है उसी तरह मनुष्य को भी अपने हृदय के अंधकार को मिटाने के लिए मन में एक आग जलाकर रखनी चाहिए। एक मनुष्य के मन में अपने सपनों को पूरा करने के लिए एक दिए की तरह प्रकाश जलता रहेगा तब तक आप निश्चित ही अपने सपनों को पूरा करने में सक्षम होगे। एक छोटे से दीपक से हमें अपने जीवन में आगे बढ़ने के लिए बहुत बड़ी सीख मिलती है।
8- ह्रदय का सौंदर्य
नदी की विस्तृत वेला शान्त,
अरुण मंडल का स्वर्ण विलास;
निशा का नीरव चन्द्र-विनोद,
कुसुम का हँसते हुए विकास।
एक से एक मनोहर दृश्य,
प्रकृति की क्रीड़ा के सब छंद;
सृष्टि में सब कुछ हैं अभिराम,
सभी में हैं उन्नति या ह्रास।
बना लो अपना हृदय प्रशान्त,
तनिक तब देखो वह सौन्दर्य;
चन्द्रिका से उज्जवल आलोक,
मल्लिका-सा मोहन मृदुहास।
अरुण हो सकल विश्व अनुराग
करुण हो निर्दय मानव चित्त;
उठे मधु लहरी मानस में
कूल पर मलयज का हो वास।
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक जयशंकर प्रसाद द्वारा कहा जा रहा है कि जब तक एक मनुष्य अपने हृदय को सुंदर नहीं बनाता तब तक जिंदगी के किसी भी पड़ाव में सफल नहीं हो सकती। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि चेहरे की खूबसूरती मायने नहीं रखती बल्कि लोगों के हृदय में जगह बनाने के लिए मन का सुंदर होना बहुत जरूरी है। आप अपने मन में किसी के प्रति मान सम्मान, दया का भाव रखेंगे रखेंगे तो आने वाले समय में आप और आपका भविष्य चंद्रमा की तरह अवश्य ही उज्जवल होगा।
9- जयशंकर प्रसाद की कविताएं: नमस्कार
जिस मंदिर का द्वार सदा उन्मुक्त रहा है
जिस मंदिर में रंक-नरेश समान रहा है
जिसके हैं आराम प्रकृति-कानन ही सारे
जिस मंदिर के दीप इन्दु, दिनकर औ’ तारे
उस मंदिर के नाथ को, निरूपम निरमय स्वस्थ को
नमस्कार मेरा सदा पूरे विश्वि-गृहस्थ को
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक जयशंकर प्रसाद द्वारा कहा जा रहा है कि जिस भगवान ने दुनिया बनाई और बड़ी ही खूबसूरत प्रकृति के साथ और इंसानों के साथ दुनिया को सजाया, पूरी कायनात बनाने वाले हमारे प्रिय भगवान को पूरे विश्वि-गृहस्थ की ओर से कोटि-कोटि नमस्कार।
10- मन्दिर
जब मानते हैं व्यापी जलभूमि में अनिल में
तारा-शशांक में भी आकाश मे अनल में
फिर क्यो ये हठ है प्यारे ! मन्दिर में वह नहीं है
वह शब्द जो ‘नही’ है, उसके लिए नहीं है
जिस भूमि पर हज़ारों हैं सीस को नवाते
परिपूर्ण भक्ति से वे उसको वहीं बताते
कहकर सइस्त्र मुख से जब है वही बताता
फिर मूढ़ चित्त को है यह क्यों नही सुहाता
अपनी ही आत्मा को सब कुछ जो जानते हो
परमात्मा में उसमें नहिं भेद मानते हो
जिस पंचतत्व से है यह दिव्य देह-मन्दिर
उनमें से ही बना है यह भी तो देव-मन्दिर
उसका विकास सुन्दर फूलों में देख करके
बनते हो क्यों मधुव्रत आनन्द-मोद भरके
इसके चरण-कमल से फिर मन क्यों हटाते हो
भव-ताप-दग्ध हिय को चन्दन नहीं चढ़ाते
प्रतिमा ही देख करके क्यों भाल में है रेखा
निर्मित किया किसी ने इसको, यही है रेखा
हर-एक पत्थरो में वह मूर्ति ही छिपी है
शिल्पी ने स्वच्छ करके दिखला दिया, वही है
इस भाव को हमारे उसको तो देख लीजे
धरता है वेश वोही जैसा कि उसको दिजे
यों ही अनेक-रूपी बनकर कभी पुजाया
लीला उसी की जग में सबमें वही समाया
मस्जिद, पगोडा, गिरजा, किसको बनाया तूने
सब भक्त-भावना के छोटे-बड़े नमूने
सुन्दर वितान कैसा आकाश भी तना है
उसका अनन्त-मन्दिर, यह विश्व ही बना है।
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक जयशंकर प्रसाद द्वारा भगवान के प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास का वर्णन किया जा रहा है। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि मस्जिद हो मंदिर हो गिरजाघर या फिर गुरुद्वारा सबकी अटूट निष्ठा अपने अपने धर्म के प्रति पूर्ण रूप से निभाते हैं। जहां एक और लोग मंदिरों में जाकर अपने इष्ट को पूछते हैं वहीं दूसरी और मुस्लिम मस्जिद और दरगाह में जाकर अपनी मनोकामना हो और इच्छाओं को पूर्ण करने की प्रार्थना करते हैं।
कहां जा रहा है कि भगवान ने सिर्फ मनुष्य को बनाया था लेकिन संसार में आने के बाद लोगों ने अपने अपने धर्म अपने अपने भगवान भक्त भावना अलग अलग कर लिए। भगवान ने तो केवल यह जमीन और आसमान जल जीव जंतु बहुत ही सुंदर दुनिया बनाई थी। कवि द्वारा कहा जा रहा है कि जिस भगवान के आगे तुम अपना शीश झुकाते हो उसी भगवान का लिखा गया क्यों मानने से इनकार करते हैं। फूलों से आरती करने के बाद भी अपना मन क्यों उसके ध्यान से हटाते हैं।
11- अरे कही देखा तुमने
अरे कहीं देखा है तुमने। मुझे प्यार करने वाले को? मेरी आँखों में आकर फिर आँसू बन ढरने वाले को? सूने नभ में आग जलाकर यह सुवर्ण-सा हृदय गला कर। जीवन संध्या को नहला कर रिक्त जलधि भरने वाले को? रजनी के लघु-लघु तम कन में। जगती की ऊष्मा के वन में उस पर पड़ते तुहिन सघन में। छिप, मुझसे डरने वाले के? निष्ठुर खेलों पर जो अपने रहा देखता सुख के सपने। आज लगा है क्यों वह कँपने देख मौन मरने वाले को?
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक द्वारा बताया जा रहा है कि कई बार कुछ लोग अपने जीवन में इतने अकेले होते हैं कि उनके पास कोई भी ऐसा नहीं होता जो उनके आंसू साफ कर सके या उन्हें सहारा दे सके। हमारे जीवन में कोई भी ऐसा शख्स नहीं होता जो हमारे सुन जीवन में आकाश की तरह रोशनी भर दे और हमें अपने गले से लगाकर काहे की मैं हूं ना। जरूरी नहीं की जिंदगी में साथ चलने के लिए कोई हमेशा साथ रहे लेकिन अकेले चलना भी बहुत मुश्किल काम है।
जिंदगी के सफर में सभी को किसी न किसी के साथ की आवश्यकता होती है बस फर्क इतना है कि कुछ लोग अपने स्वार्थ के कारण हमारे साथ रहते हैं और बुरे वक्त में अपनी असलियत दिखाकर छोड़ जाते हैं। आप भी किसी का साथ चाहते हैं तो किसी ऐसे व्यक्ति को अपनी जिंदगी में लाए जो आपके सुख में ना सही बल्कि आपके दुख में आपका साथ दे और आपको अकेला ना छोड़े। इस कविता का उद्देश्य केवल इतना ही है कि जिंदगी में किसी ऐसे इंसान का साथ रखें जो आपके सुख-दुख और हंसी खुशी में एक जैसा बर्ताव रखें और हमेशा आपसे कहे कि मैं आपके साथ हूं।
12- दो बूंद
शरद का सुंदर नीलाकाश
निशा निखरी,था निर्मल हास। बह रही छाया पथ में स्वच्छ
सुधा सरिता लेती उच्छ्वास। पुलक कर लगी देखने धरा
प्रकृति भी सकी न आँखें मूंद। सु शीतलकारी शशि आया
सुधा की मनो बड़ी सी बूँद।
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक द्वारा कहा जा रहा है कि जब आकाश में बदल गिर कर आते हैं तो नीले आकाश में शरद की सुंदर निशान बिखर जाती है और लोगों के मन में उत्साह सी भर जाती है। पथ में ठंडी और स्वच्छ हवा हमारे मन में सरिता की लहर की तरह दौड़ जाती है। इस माहौल में प्रकृति भी अपनी आंखें बंद नहीं कर पाती और जब शशि से दो बूंद बरसती है तो एक अजीब सा सुख और मां को शांति मिलती है। इस कविता का उद्देश्य केवल इतना ही है कि जिस प्रकार बारिश का पानी हमारी आत्मा को सुकून देता है इस प्रकार हमें भी अपने कर्मों से लोगों को खुशियां और मुस्कान देनी चाहिए।
13- ले चल वह भुलावा देकर
ले चल वहाँ भुलावा देकर
मेरे नाविक धीरे-धीरे। जिस निर्जन में सागर लहरी
अम्बर के कानों में गहरी। निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-
तज कोलाहल की अवनी रे। जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया
ढीली अपनी कोमल काया। नील नयन से ढुलकाती हो-
ताराओं की पाँति घनी रे। जिस गम्भीर मधुर छाया में
विश्व चित्र-पट चल माया में। विभुता विभु-सी पड़े दिखाई
दुख-सुख बाली सत्य बनी रे। श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से
जहाँ सृजन करते मेला से। अमर जागरण उषा नयन से
बिखराती हो ज्योति घनी रे।
व्याख्या
इस कविता के माध्यम से लेखक द्वारा बताया मेरे नाविक धीरे-धीरे चल जहां से मेरा बुलावा आया है वहां मुझे पहुंचना है। जाने की खुशी में कवि के मन में सागर जैसी गहरी लहर दौड़ रही है। जब हम अपने मंजिल की और बढ़ते हैं तो मन में एक अजीब सा शोर और खुशी होती है खुशी इसलिए होती है कि मंजिल को पाना है और शोर इसलिए होता है कि हजार विपदये आएंगी उनसे घबराना नहीं है।
कविता का उद्देश्य केवल इतना ही है कि जब कोई व्यक्ति अपने मंजिल की ओर बढ़ता है तो उसके कदम भी लड़खड़ाते हैं और रास्ते में कांटे भी हजार मिलते हैं लेकिन घबरा बिना आपको तारों की तरह चमकना है। बहुत सारे लोग अच्छे फैमिली से बिलॉन्ग करने के कारण कोमल होते हैं और उन्हें नहीं पता होता कि उन्हें अपने सपनों को कैसे साकार करना है लेकिन यदि आपको एक छोटा सा सपना भी पूरा करना है तो उसके लिए आपको अवश्य ही मेहनत भी करनी है और गिरकर संभालना भी है।
हम आशा करते हैं कि आपको प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद जी द्वारा लिखी गई दिलचस्प कविताएं अवश्य ही पसंद आई होंगी। आगे भी हम आपके लिए इसी तरह दिलचस्प और मशहूर Hindi कविताएं इसी तरह लिखते रहेंगे।